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मोर.... / लीलाधर मंडलोई

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<poem>

आषाढ़ के बादलों की यह मड़ई
अच्‍छे सगुन के साथ आई है
ऊपर से एक सिंफनी है उतरती
और इधर पक्षियों के सुहाने बोल

इसी बीच मैं पहुंच जाता हूं
तलहटी में कितना तीव्र आकर्षण
डूबी है धरती अनोखे संगीत में
और दृश्‍यों की अनुपम छटा बींधती है

वहां मोर इतने बेसुध
कि ठुमक रहे हैं और
उनके पंखों ने सिरज दिए इंद्रधनुष
जिनका प्रतिबिम्‍ब आंखों में फ्रीज है

मैं एक चोर की तरह पेड़ की ओट में हूं
उनकी समूची देह अनूठे राग में विन्‍यस्‍त
मनलुभावन मुद्राओं में वे नृत्‍यलीन
मैं जो एकदम अनभिज्ञ हूं इस जादू से
कुछ और हो रहा हूं भीतर से
मेरे पांव अपने-आप थिरक रहे हैं

क्‍या मैं भीतर से मोर हो रहा हूं ?
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