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[[Category:ग़ज़ल]]
तुम जिस ज़मीन पर हो मैं उस का ख़ुदा नहीं
बस सर बसर - ब-सर अज़ीयत-ओ-आज़ार ही रहो
बेज़ार हो गई हो बहुत ज़िन्दगी से तुम
तुम को यहाँ के साया-ए-परतौ से क्या ग़रज़
तुम अपने हक़ में बीच की दीवार ही रहो
 
मैं इब्तदा-ए-इश्क़ में बेमहर ही रहा
इस रंग इस अदा में भी पुरकार ही रहो
 मैं ने मैंने ये कब कहा था के मुहब्बत में है नजात मैं ने मैंने ये कब कहा था के वफ़दार ही रहो
अपनी मता-ए-नाज़ लुटा कर मेरे लिये
बाज़ार-ए-इल्तफ़ात में नादार ही रहो