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Kavita Kosh से
गन्हाते गोबर-सी
पसीनियाए काजल-सी
आँखों और कानों में
कीचड़-खूंट समेटे,
नखरे और नख-शिख
भाल-गाल, उर, कटि
पूरी की पूरी कबाड़ बन गई हो?
कविता! तुम आवारा हो गई हो