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जिस शजर पर तुम हमेशा फैंकते पत्‍थर रहे होमेरी हिम्मत के पौधे को वो आकर सींच जाती है,पास में उसके ही मेरा भी मकां अकेला जान कर मुझको, हवा तेवर दिखाती है जानते हो.
सीख कर उड़ना न लौटे वो कभी वापस इधर फिरइनायत उस मेहरबां की हुई रुक रुक के कुछ ऐसे,अब हूं सूना घोंसला तो क्‍यों भला ना दुख मुझे होघने पेड़ों से छन छन कर सुबह ज्यों धूप आती है.
लड़ रहे हो आँधियों से जिस तरह लड़ते ही रहनादिया हाथों में कासा और सीने में दी ख़ुद्दारी,इस अंधेरी रात में अब तुम ही बस अंतिम दिये होबता ऐ जिंदगी ऐसे भला क्‍यों आज़माती है.
छांव में बैठेंगे और पत्‍थर भी सब फैंकेगे तुम पररहन रख आये आखिर हम उसूलों के सभी गहने,पेड़ छायादार हो तुम और फलों से भी लदे होकरें क्‍या भूख आकर रोज़ कुण्‍डी खटखटाती है.
मैं भला क्‍यों कर डरूं अब राह की दुश्‍वारियों ये पत्थर तोड़ते बच्चे ज़मीं सेहैं जुड़े कितने,जिंदगी के रास्‍ते पसीने में तुम जो अब रहबर मेरे होघुली मिटटी गले इनको लगाती है.
मुझे ही हो गई है डरा सहमा अंधेरा, वो बढ़े कैसे अब आगेतिश्‍नगी से दोस्‍ती वरना,हाथ कोई बदली मेरी छत पर बरसने रोज़ आती है. जहाँ में दीपक लिये तुम बन के उजियारा खड़े होमाँ की ममता से घनी और छांव क्या होगी,मुझे पाला, मेरे बच्चों को भी लोरी सुनाती है.
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