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15:39, 6 अगस्त 2010
<poem>1977 से 1982 के पंचक की इन रचनाओं के लिए मैं अपने परिजनों के काफ़िले का ऋणी हूँ जिसने बीसियों दिनों के हर क्षण के साथ में भी गीत गोविन्द के जयदेव की केन्दुली और समय की गति पहने पथरीले कोणार्क को पहचानने का एकान्तिक यत्न तो करने दिया ही, कभी डायमंड-हार्बर, दीघा तो कभी जगन्नाथ की पुरी के जल-दर्पण में स्वयं को भीतर तक देखने-पहचानने का विरल अवसर भी लेने दिया।आँख की हद पार तक पसरे सागर को देखता रहा। वह दूर-दूरान्त से बहुत कुछ समेट, उफनता आकाश छूता सा मेरे सामने बहुत कुछ बिछाता रहा। मैं देखता रहा, सुनता रहा उसका अनहद नाद-गरजता हूँ-हाँयता, छपक छप-छपता रुनझुनता भी। बूंद-बूंद में अपार सागर....सुन ! मेरे .इस बूंद-बूंद अपार सागर ने ही अंशी सुनदिखाया एक और सागर-मरे घोंधे सीपियों, गड्डे गल-गच्चियों वाला सागर। नीला तो नहीं था यह सागर, तरल भी नहीं था, सूखा निपट सूखा, आँख की हद पार तक पसरा हुआ। रोम-रोम ही नहीं अतलान्त तक पीला। जर्द नहीं, सोनल पीला, इस सागर की तरह उठ-उठ उफनता, आकाश छूता सा.....इसका भी अनहद नाद-गरजता हूँ-हाँयता, रुनझुनाता हुआ भी।वह जो धारे हैकब किससे बोले हैजो बोले नीले सागर में भी देह के धर्म के लिए यत्नों की नाव खेती हुई जीवेषणा। यह भी नहीं देखती रोशनी के थंभ से घर की सीध, जाल भरे जाने तक चलाए ही जाती चप्पू दिसावर-दिसावर। यह जीवेषणा मौसम दफ्तर की खबर भी नहीं सुनती, झूमती जाती है कभी-झंझावातों से अपने विराट का होना बनाए रखने।सुने है कौननीले नागर में हिलक-हिलक उघड़ गया एक सूखा-पीला सागर मेरा भी। जिस की छाती पर न रोशनी के थंभ और न काली-पीली आंधियों के उफनाव की सूचना के मौसम दफ्तर। न जाल न मछलियां पर धूप से तपे समुंदर में देह के धर्म के लिए झूझती हुई वही जीवेषणा-थारेषणा।उसको कौन समझे ऐसे दर्शाव ने बनी इन प्रस्तुतियों के साथ यह प्रणत कामना कि सच और संवेदना का धनी पाठक यह तो जाने ही कि सागर ही है मेरा जकक, था नहीं, सागर ही हैमेरा घर।सुलाने ये शब्द यदि थारेषणा को तुझेउसके पूरे भीतर-बाहर सहित रूपायित नहीं कर पाए हैं तो यह मेरे एकमात्र उपकरण-भाषा की मेरी रचनात्मक क्षमता की दुर्बलता है। धोरों का जीवट अपना होना बनाए रखने की अब तक की यात्रा में बांचे-रचे जाने के हर-हर प्रयत्न से जो बड़ा ही है। नीला-नीला सागर होने के ‘मिथ’ से भी अधिक व्यापक और विराट भी।सुनाई जिस रेत ने मुझे रचा, उस रेत के मुझ में होते हुए रचाव पाठक तक पहुंचे और पाठक रेत के विराट सागर को देखे, पहचाने ही नहीं कभी लोरीबोले भी।जागता रह कर सुने तो सुन.....</poem> पाठक का बोलना मेरे लिए चरैवैति-चरैवैति ही रहेगा।
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