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<br>चौ०-कामरूप जानहिं सब माया। सपनेहुँ जिन्ह कें धरम न दाया॥
<br>दसमुख बैठ सभाँ एक बारा। देखि अमित आपन परिवारा॥परिवारा॥१॥
<br>सुत समूह जन परिजन नाती। गनै को पार निसाचर जाती॥
<br>सेन बिलोकि सहज अभिमानी। बोला बचन क्रोध मद सानी॥२॥
<br>ते सनमुख नहिं करहिं लराई। देखि सबल रिपु जाहिं पराई॥३॥
<br>तेन्ह कर मरन एक बिधि होई। कहउँ बुझाइ सुनहु अब सोई॥
<br>द्विजभोजन मख होम सराधा॥सब कै जाइ करहु तुम्ह बाधा॥बाधा॥४॥
<br>दो०-छुधा छीन बलहीन सुर सहजेहिं मिलिहहिं आइ।
<br>तब मारिहउँ कि छाड़िहउँ भली भाँति अपनाइ॥१८१॥
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<br>चौ०-मेघनाद कहुँ पुनि हँकरावा। दीन्ही सिख बलु बयरु बढ़ावा॥
<br>जे सुर समर धीर बलवाना। जिन्ह कें लरिबे कर अभिमाना॥अभिमाना॥१॥
<br>तिन्हहि जीति रन आनेसु बाँधी। उठि सुत पितु अनुसासन काँधी॥
<br>एहि बिधि सबही अग्या दीन्ही। आपुनु चलेउ गदा कर लीन्ही॥२॥
<br>रावन आवत सुनेउ सकोहा। देवन्ह तके मेरु गिरि खोहा॥३॥
<br>दिगपालन्ह के लोक सुहाए। सूने सकल दसानन पाए॥
<br>पुनि पुनि सिंघनाद करि भारी। देइ देवतन्ह गारि पचारी॥पचारी॥४॥
<br>रन मद मत्त फिरइ जग धावा। प्रतिभट खोजत कतहुँ न पावा॥
<br>रबि ससि पवन बरुन धनधारी। अगिनि काल जम सब अधिकारी॥अधिकारी॥५॥
<br>किंनर सिद्ध मनुज सुर नागा। हठि सबही के पंथहिं लागा॥
<br>ब्रह्मसृष्टि जहँ लगि तनुधारी। दसमुख बसबर्ती नर नारी॥नारी॥६॥<br>आयसु करहिं सकल भयभीता। नवहिं आइ नित चरन बिनीता॥बिनीता॥७॥
<br>दो०-भुजबल बिस्व बस्य करि राखेसि कोउ न सुतंत्र।
<br>मंडलीक मनि रावन राज करइ निज मंत्र॥१८२(क)॥
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<br>चौ०-इंद्रजीत सन जो कछु कहेऊ। सो सब जनु पहिलेहिं करि रहेऊ॥
<br>प्रथमहिं जिन्ह कहुँ आयसु दीन्हा। तिन्ह कर चरित सुनहु जो कीन्हा॥कीन्हा॥१॥
<br>देखत भीमरूप सब पापी। निसिचर निकर देव परितापी॥
<br>करहि उपद्रव असुर निकाया। नाना रूप धरहिं करि माया॥२॥
<br>जेहिं जेहिं देस धेनु द्विज पावहिं। नगर गाउँ पुर आगि लगावहिं॥३॥
<br>सुभ आचरन कतहुँ नहिं होई। देव बिप्र गुरू मान न कोई॥
<br>नहिं हरिभगति जग्य तप ग्याना। सपनेहुँ सुनिअ न बेद पुराना॥पुराना॥४॥
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<br>छं०-जप जोग बिरागा तप मख भागा श्रवन सुनइ दससीसा।
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<br>चौ०-बाढ़े खल बहु चोर जुआरा। जे लंपट परधन परदारा॥
<br>मानहिं मातु पिता नहिं देवा। साधुन्ह सन करवावहिं सेवा॥सेवा॥१॥
<br>जिन्ह के यह आचरन भवानी। ते जानेहु निसिचर सब प्रानी॥
<br>अतिसय देखि धर्म कै ग्लानी। परम सभीत धरा अकुलानी॥अकुलानी॥२॥
<br>गिरि सरि सिंधु भार नहिं मोही। जस मोहि गरुअ एक परद्रोही॥
<br>सकल धर्म देखइ बिपरीता। कहि न सकइ रावन भय भीता॥भीता॥३॥
<br>धेनु रूप धरि हृदयँ बिचारी। गई तहाँ जहँ सुर मुनि झारी॥
<br>निज संताप सुनाएसि रोई। काहू तें कछु काज न होई॥होई॥४॥
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<br>छं०-सुर मुनि गंधर्बा मिलि करि सर्बा गे बिरंचि के लोका।
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<br>चौ०-बैठे सुर सब करहिं बिचारा। कहँ पाइअ प्रभु करिअ पुकारा॥
<br>पुर बैकुंठ जान कह कोई। कोउ कह पयनिधि बस प्रभु सोई॥सोई॥१॥
<br>जाके हृदयँ भगति जसि प्रीति। प्रभु तहँ प्रगट सदा तेहिं रीती॥
<br>तेहि समाज गिरिजा मैं रहेऊँ। अवसर पाइ बचन एक कहेऊँ॥कहेऊँ॥२॥
<br>हरि ब्यापक सर्बत्र समाना। प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना॥
<br>देस काल दिसि बिदिसिहु माहीं। कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं॥नाहीं॥३॥
<br>अग जगमय सब रहित बिरागी। प्रेम तें प्रभु प्रगटइ जिमि आगी॥
<br>मोर बचन सब के मन माना। साधु साधु करि ब्रह्म बखाना॥बखाना॥४॥
<br>दो०-सुनि बिरंचि मन हरष तन पुलकि नयन बह नीर।
<br>अस्तुति करत जोरि कर सावधान मतिधीर॥१८५॥
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<br>छं०-जय जय सुरनायक जन सुखदायक प्रनतपाल भगवंता।
<br>गो द्विज हितकारी जय असुरारी सिधुंसुता प्रिय कंता॥कंता॥१॥
<br>पालन सुर धरनी अद्भुत करनी मरम न जानइ कोई।
<br>जो सहज कृपाला दीनदयाला करउ अनुग्रह सोई॥सोई॥१॥
<br>जय जय अबिनासी सब घट बासी ब्यापक परमानंदा।
<br>अबिगत गोतीतं चरित पुनीतं मायारहित मुकुंदा॥
<br>जेहि लागि बिरागी अति अनुरागी बिगतमोह मुनिबृंदा।
<br>निसि बासर ध्यावहिं गुन गन गावहिं जयति सच्चिदानंदा॥सच्चिदानंदा॥२॥
<br>जेहिं सृष्टि उपाई त्रिबिध बनाई संग सहाय न दूजा।
<br>सो करउ अघारी चिंत हमारी जानिअ भगति न पूजा॥
<br>जो भव भय भंजन मुनि मन रंजन गंजन बिपति बरूथा।
<br>मन बच क्रम बानी छाड़ि सयानी सरन सकल सुर जूथा॥जूथा॥३॥
<br>सारद श्रुति सेषा रिषय असेषा जा कहुँ कोउ नहिं जाना।
<br>जेहि दीन पिआरे बेद पुकारे द्रवउ सो श्रीभगवाना॥
<br>भव बारिधि मंदर सब बिधि सुंदर गुनमंदिर सुखपुंजा।
<br>मुनि सिद्ध सकल सुर परम भयातुर नमत नाथ पद कंजा॥कंजा॥४॥
<br>दो०-जानि सभय सुरभूमि सुनि बचन समेत सनेह।
<br>गगनगिरा गंभीर भइ हरनि सोक संदेह॥१८६॥
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<br>चौ०-जनि डरपहु मुनि सिद्ध सुरेसा। तुम्हहि लागि धरिहउँ नर बेसा॥
<br>अंसन्ह सहित मनुज अवतारा। लेहउँ दिनकर बंस उदारा॥उदारा॥१॥
<br>कस्यप अदिति महातप कीन्हा। तिन्ह कहुँ मैं पूरब बर दीन्हा॥
<br>ते दसरथ कौसल्या रूपा। कोसलपुरीं प्रगट नरभूपा॥नरभूपा॥२॥
<br>तिन्ह के गृह अवतरिहउँ जाई। रघुकुल तिलक सो चारिउ भाई॥
<br>नारद बचन सत्य सब करिहउँ। परम सक्ति समेत अवतरिहउँ॥
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<br>चौ०-गए देव सब निज निज धामा। भूमि सहित मन कहुँ बिश्रामा ।
<br>जो कछु आयसु ब्रह्माँ दीन्हा। हरषे देव बिलंब न कीन्हा॥कीन्हा॥१॥
<br>बनचर देह धरी छिति माहीं। अतुलित बल प्रताप तिन्ह पाहीं॥
<br>गिरि तरु नख आयुध सब बीरा। हरि मारग चितवहिं मतिधीरा॥मतिधीरा॥२॥
<br>गिरि कानन जहँ तहँ भरि पूरी। रहे निज निज अनीक रचि रूरी॥
<br>यह सब रुचिर चरित मैं भाषा। अब सो सुनहु जो बीचहिं राखा॥
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<br>चौ०-एक बार भूपति मन माहीं। भै गलानि मोरें सुत नाहीं॥
<br>गुर गृह गयउ तुरत महिपाला। चरन लागि करि बिनय बिसाला॥बिसाला॥१॥
<br>निज दुख सुख सब गुरहि सुनायउ। कहि बसिष्ठ बहुबिधि समुझायउ॥
<br>धरहु धीर होइहहिं सुत चारी। त्रिभुवन बिदित भगत भय हारी॥हारी॥२॥
<br>सृंगी रिषिहि बसिष्ठ बोलावा। पुत्रकाम सुभ जग्य करावा॥
<br>भगति सहित मुनि आहुति दीन्हें। प्रगटे अगिनि चरू कर लीन्हें॥
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<br>तबहिं रायँ प्रिय नारि बोलाईं। कौसल्यादि तहाँ चलि आईं॥
<br>अर्ध भाग कौसल्याहि दीन्हा। उभय भाग आधे कर कीन्हा॥कीन्हा॥१॥
<br>कैकेई कहँ नृप सो दयऊ। रह्यो सो उभय भाग पुनि भयऊ॥
<br>कौसल्या कैकेई हाथ धरि। दीन्ह सुमित्रहि मन प्रसन्न करि॥करि॥२॥
<br>एहि बिधि गर्भसहित सब नारी। भईं हृदयँ हरषित सुख भारी॥
<br>जा दिन तें हरि गर्भहिं आए। सकल लोक सुख संपति छाए॥
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