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चौ०-एक बार जननीं अन्हवाए। करि सिंगार पलनाँ पौढ़ाए॥पौढ़ाए ॥<br>निज कुल इष्टदेव भगवाना। पूजा हेतु कीन्ह अस्नाना॥अस्नाना॥१॥<br>करि पूजा नैबेद्य चढ़ावा। आपु गई जहँ पाक बनावा॥<br>बहुरि मातु तहवाँ चलि आई। भोजन करत देख सुत जाई॥जाई॥२॥
<br>गै जननी सिसु पहिं भयभीता। देखा बाल तहाँ पुनि सूता॥
<br>बहुरि आइ देखा सुत सोई। हृदयँ कंप मन धीर न होई॥होई॥३॥
<br>इहाँ उहाँ दुइ बालक देखा। मतिभ्रम मोर कि आन बिसेषा॥
<br>देखि राम जननी अकुलानी। प्रभु हँसि दीन्ह मधुर मुसुकानी॥४॥
<br>दो०-देखरावा मातहि निज अद्भुत रुप अखंड।
<br>रोम रोम प्रति लागे कोटि कोटि ब्रह्मंड॥ २०१॥
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<br>चौ०-अगनित रबि ससि सिव चतुरानन। बहु गिरि सरित सिंधु महि कानन॥
<br>काल कर्म गुन ग्यान सुभाऊ। सोउ देखा जो सुना न काऊ॥काऊ॥१ ॥
<br>देखी माया सब बिधि गाढ़ी। अति सभीत जोरें कर ठाढ़ी॥
<br>देखा जीव नचावइ जाही। देखी भगति जो छोरइ ताही॥ताही॥२ ॥
<br>तन पुलकित मुख बचन न आवा। नयन मूदि चरननि सिरु नावा॥
<br>बिसमयवंत देखि महतारी। भए बहुरि सिसुरूप खरारी॥खरारी॥३॥
<br>अस्तुति करि न जाइ भय माना। जगत पिता मैं सुत करि जाना॥
<br>हरि जननी बहुबिधि समुझाई। यह जनि कतहुँ कहसि सुनु माई॥माई॥४॥
<br>दो०-बार बार कौसल्या बिनय करइ कर जोरि॥
<br>अब जनि कबहूँ ब्यापै प्रभु मोहि माया तोरि॥ २०२॥
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<br>चौ०-बालचरित हरि बहुबिधि कीन्हा। अति अनंद दासन्ह कहँ दीन्हा॥
<br>कछुक काल बीतें सब भाई। बड़े भए परिजन सुखदाई॥सुखदाई॥१ ॥
<br>चूड़ाकरन कीन्ह गुरु जाई। बिप्रन्ह पुनि दछिना बहु पाई॥
<br>परम मनोहर चरित अपारा। करत फिरत चारिउ सुकुमारा॥सुकुमारा॥२॥
<br>मन क्रम बचन अगोचर जोई। दसरथ अजिर बिचर प्रभु सोई॥
<br>भोजन करत बोल जब राजा। नहिं आवत तजि बाल समाजा॥समाजा॥३॥
<br>कौसल्या जब बोलन जाई। ठुमकु ठुमकु प्रभु चलहिं पराई॥
<br>निगम नेति सिव अंत न पावा। ताहि धरै जननी हठि धावा॥धावा॥४॥<br>धूसर धूरि भरें तनु आए। भूपति बिहसि गोद बैठाए॥बैठाए॥५॥
<br>दो०-भोजन करत चपल चित इत उत अवसरु पाइ।
<br>भाजि चले किलकत मुख दधि ओदन लपटाइ॥२०३॥
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<br>चौ०-बालचरित अति सरल सुहाए। सारद सेष संभु श्रुति गाए॥
<br>जिन कर मन इन्ह सन नहिं राता। ते जन बंचित किए बिधाता॥बिधाता॥१ ॥
<br>भए कुमार जबहिं सब भ्राता। दीन्ह जनेऊ गुरु पितु माता॥
<br>गुरगृहँ गए पढ़न रघुराई। अलप काल बिद्या सब आई॥आई॥२॥
<br>जाकी सहज स्वास श्रुति चारी। सो हरि पढ़ यह कौतुक भारी॥
<br>बिद्या बिनय निपुन गुन सीला। खेलहिं खेल सकल नृपलीला॥नृपलीला॥३॥
<br>करतल बान धनुष अति सोहा। देखत रूप चराचर मोहा॥
<br>जिन्ह बीथिन्ह बिहरहिं सब भाई। थकित होहिं सब लोग लुगाई॥लुगाई॥४॥
<br>दो०- कोसलपुर बासी नर नारि बृद्ध अरु बाल।
<br>प्रानहु ते प्रिय लागत सब कहुँ राम कृपाल॥२०४॥
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<br>चौ०-बंधु सखा संग लेहिं बोलाई। बन मृगया नित खेलहिं जाई॥
<br>पावन मृग मारहिं जियँ जानी। दिन प्रति नृपहि देखावहिं आनी॥आनी॥१ ॥
<br>जे मृग राम बान के मारे। ते तनु तजि सुरलोक सिधारे॥
<br>अनुज सखा सँग भोजन करहीं। मातु पिता अग्या अनुसरहीं॥अनुसरहीं॥२॥
<br>जेहि बिधि सुखी होहिं पुर लोगा। करहिं कृपानिधि सोइ संजोगा॥
<br>बेद पुरान सुनहिं मन लाई। आपु कहहिं अनुजन्ह समुझाई॥समुझाई॥३॥
<br>प्रातकाल उठि कै रघुनाथा। मातु पिता गुरु नावहिं माथा॥
<br>आयसु मागि करहिं पुर काजा। देखि चरित हरषइ मन राजा॥राजा॥४॥
<br>दो०-ब्यापक अकल अनीह अज निर्गुन नाम न रूप।
<br>भगत हेतु नाना बिधि करत चरित्र अनूप॥२०५॥
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<br>चौ०-यह सब चरित कहा मैं गाई। आगिलि कथा सुनहु मन लाई॥
<br>बिस्वामित्र महामुनि ग्यानी। बसहिं बिपिन सुभ आश्रम जानी॥जानी॥१ ॥
<br>जहँ जप जग्य मुनि करहीं। अति मारीच सुबाहुहि डरहीं॥
<br>देखत जग्य निसाचर धावहिं। करहि उपद्रव मुनि दुख पावहिं॥पावहिं॥२॥
<br>गाधितनय मन चिंता ब्यापी। हरि बिनु मरहिं न निसिचर पापी॥
<br>तब मुनिवर मन कीन्ह बिचारा। प्रभु अवतरेउ हरन महि भारा॥भारा॥३॥
<br>एहूँ मिस देखौं पद जाई। करि बिनती आनौं दोउ भाई॥
<br>ग्यान बिराग सकल गुन अयना। सो प्रभु मैं देखब भरि नयना॥नयना॥४॥
<br>दो०-बहुबिधि करत मनोरथ जात लागि नहिं बार।
<br>करि मज्जन सरऊ जल गए भूप दरबार॥२०६॥
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<br>चौ०-मुनि आगमन सुना जब राजा। मिलन गयऊ लै बिप्र समाजा॥
<br>करि दंडवत मुनिहि सनमानी। निज आसन बैठारेन्हि आनी॥आनी॥१ ॥
<br>चरन पखारि कीन्हि अति पूजा। मो सम आजु धन्य नहिं दूजा॥
<br>बिबिध भाँति भोजन करवावा। मुनिवर हृदयँ हरष अति पावा॥पावा॥२॥
<br>पुनि चरननि मेले सुत चारी। राम देखि मुनि देह बिसारी॥
<br>भए मगन देखत मुख सोभा। जनु चकोर पूरन ससि लोभा॥लोभा॥३॥
<br>तब मन हरषि बचन कह राऊ। मुनि अस कृपा न कीन्हिहु काऊ॥
<br>केहि कारन आगमन तुम्हारा। कहहु सो करत न लावउँ बारा॥बारा॥४॥
<br>असुर समूह सतावहिं मोही। मै जाचन आयउँ नृप तोही॥
<br>अनुज समेत देहु रघुनाथा। निसिचर बध मैं होब सनाथा॥सनाथा॥५॥
<br>दो०-देहु भूप मन हरषित तजहु मोह अग्यान।
<br>धर्म सुजस प्रभु तुम्ह कौं इन्ह कहँ अति कल्यान॥२०७॥
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<br>चौ०-सुनि राजा अति अप्रिय बानी। हृदय कंप मुख दुति कुमुलानी॥
<br>चौथेंपन पायउँ सुत चारी। बिप्र बचन नहिं कहेहु बिचारी॥बिचारी॥१ ॥
<br>मागहु भूमि धेनु धन कोसा। सर्बस देउँ आजु सहरोसा॥
<br>देह प्रान तें प्रिय कछु नाहीं। सोउ मुनि देउँ निमिष एक माहीं॥माहीं॥२॥
<br>सब सुत प्रिय मोहि प्रान कि नाईं। राम देत नहिं बनइ गोसाई॥
<br>कहँ निसिचर अति घोर कठोरा। कहँ सुंदर सुत परम किसोरा॥किसोरा॥३॥
<br>सुनि नृप गिरा प्रेम रस सानी। हृदयँ हरष माना मुनि ग्यानी॥
<br>तब बसिष्ट बहुबिधि समुझावा। नृप संदेह नास कहँ पावा॥पावा॥४॥
<br>अति आदर दोउ तनय बोलाए। हृदयँ लाइ बहु भाँति सिखाए॥
<br>मेरे प्रान नाथ सुत दोऊ। तुम्ह मुनि पिता आन नहिं कोऊ॥कोऊ॥५॥
<br>दो०-सौंपे भूप रिषिहि सुत बहु बिधि देइ असीस।
<br>जननी भवन गए प्रभु चले नाइ पद सीस॥२०८(क)॥
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<br>चौ०-अरुन नयन उर बाहु बिसाला। नील जलज तनु स्याम तमाला॥
<br>कटि पट पीत कसें बर भाथा। रुचिर चाप सायक दुहुँ हाथा॥हाथा॥१ ॥
<br>स्याम गौर सुंदर दोउ भाई। बिस्वामित्र महानिधि पाई॥
<br>प्रभु ब्रह्मन्यदेव मै जाना। मोहि निति पिता तजेहु भगवाना॥भगवाना॥२॥
<br>चले जात मुनि दीन्हि देखाई। सुनि ताड़का क्रोध करि धाई॥
<br>एकहिं बान प्रान हरि लीन्हा। दीन जानि तेहि निज पद दीन्हा॥दीन्हा॥३॥
<br>तब रिषि निज नाथहि जियँ चीन्ही। बिद्यानिधि कहुँ बिद्या दीन्ही॥
<br>जाते लाग न छुधा पिपासा। अतुलित बल तनु तेज प्रकासा॥प्रकासा॥४॥
<br>दो०-आयुध सर्ब समर्पि कै प्रभु निज आश्रम आनि।
<br>कंद मूल फल भोजन दीन्ह भगति हित जानि॥२०९॥
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<br>चौ०-प्रात कहा मुनि सन रघुराई। निर्भय जग्य करहु तुम्ह जाई॥
<br>होम करन लागे मुनि झारी। आपु रहे मख कीं रखवारी॥रखवारी॥१ ॥
<br>सुनि मारीच निसाचर क्रोही। लै सहाय धावा मुनिद्रोही॥
<br>बिनु फर बान राम तेहि मारा। सत जोजन गा सागर पारा॥पारा॥२॥
<br>पावक सर सुबाहु पुनि मारा। अनुज निसाचर कटकु सँघारा॥
<br>मारि असुर द्विज निर्भयकारी। अस्तुति करहिं देव मुनि झारी॥झारी॥३॥
<br>तहँ पुनि कछुक दिवस रघुराया। रहे कीन्हि बिप्रन्ह पर दाया॥
<br>भगति हेतु बहु कथा पुराना। कहे बिप्र जद्यपि प्रभु जाना॥जाना॥४॥
<br>तब मुनि सादर कहा बुझाई। चरित एक प्रभु देखिअ जाई॥
<br>धनुषजग्य सुनि रघुकुल नाथा। हरषि चले मुनिबर के साथा॥साथा॥५॥
<br>आश्रम एक दीख मग माहीं। खग मृग जीव जंतु तहँ नाहीं॥
<br>पूछा मुनिहि सिला प्रभु देखी। सकल कथा मुनि कहा बिसेषी॥बिसेषी॥६॥
<br>दो०-गौतम नारि श्राप बस उपल देह धरि धीर।
<br>चरन कमल रज चाहति कृपा करहु रघुबीर॥२१०॥
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<br>छं०-परसत पद पावन सोक नसावन प्रगट भई तपपुंज सही।
<br>देखत रघुनायक जन सुखदायक सनमुख होइ कर जोरि रही॥रही॥१॥
<br>अति प्रेम अधीरा पुलक सरीरा मुख नहिं आवइ बचन कही।
<br>अतिसय बड़भागी चरनन्हि लागी जुगल नयन जलधार बही॥बही॥१॥
<br>धीरजु मन कीन्हा प्रभु कहुँ चीन्हा रघुपति कृपाँ भगति पाई।
<br>अति निर्मल बानीं अस्तुति ठानी ग्यानगम्य जय रघुराई॥
<br>मै नारि अपावन प्रभु जग पावन रावन रिपु जन सुखदाई।सुखदाई॥२॥
<br>राजीव बिलोचन भव भय मोचन पाहि पाहि सरनहिं आई॥
<br>मुनि श्राप जो दीन्हा अति भल कीन्हा परम अनुग्रह मैं माना।
<br>देखेउँ भरि लोचन हरि भवमोचन इहइ लाभ संकर जाना॥
<br>बिनती प्रभु मोरी मैं मति भोरी नाथ न मागउँ बर आना।
<br>पद कमल परागा रस अनुरागा मम मन मधुप करै पाना॥पाना॥३॥
<br>जेहिं पद सुरसरिता परम पुनीता प्रगट भई सिव सीस धरी।
<br>सोई पद पंकज जेहि पूजत अज मम सिर धरेउ कृपाल हरी॥
<br>एहि भाँति सिधारी गौतम नारी बार बार हरि चरन परी।
<br>जो अति मन भावा सो बरु पावा गै पतिलोक अनंद भरी॥भरी॥४॥
<br>दो०-अस प्रभु दीनबंधु हरि कारन रहित दयाल।
<br>तुलसिदास सठ तेहि भजु छाड़ि कपट जंजाल॥२११॥
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<br>चौ०-चले राम लछिमन मुनि संगा। गए जहाँ जग पावनि गंगा॥
<br>गाधिसूनु सब कथा सुनाई। जेहि प्रकार सुरसरि महि आई॥आई॥१ ॥
<br>तब प्रभु रिषिन्ह समेत नहाए। बिबिध दान महिदेवन्हि पाए॥
<br>हरषि चले मुनि बृंद सहाया। बेगि बिदेह नगर निअराया॥निअराया॥२॥
<br>पुर रम्यता राम जब देखी। हरषे अनुज समेत बिसेषी॥
<br>बापीं कूप सरित सर नाना। सलिल सुधासम मनि सोपाना॥
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