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|रचनाकार= श्रद्धा जैन
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फलक पे छा गई बदली नज़र नहीं आती
मुझे ज़मीन भी उजली नज़र नहीं आती

हवा में शोर ये कैसा सुनाई देता है
कहाँ पे गिर गई बिजली, नज़र नहीं आती

चमन में खार ने पहने, गुलों के चेहरे हैं
इसीलिए कली कुचली नज़र नहीं आती

गिरा पहाड़ से झरना तो यूँ ज़मीं बोली
ये दिल की पीर थी पिघली नज़र नही आती

हर एक सम्त नुमाइश का दौर है "श्रद्धा"
यहाँ दुआ भी तो असली नज़र नहीं आती
</poem>
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