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उड़-उड़ जाते पक्षी/ अशोक लव

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<poem>

पक्षी नहीं रहते सदा
एक ही स्थान पर
मौसम बदलते ही बदल लेते हैं
अपने स्थान

सर्दियों में गिरती है जब बर्फ
छोड़ देते हैं घर-आँगन
उड़ते हैं
पार करते हैं हजारों-हज़ार किलोमीटर
और तलाशते हैं
नया स्थान
सुख-सुविधाओं से पूर्ण
अनुकूल परिस्थितियों का स्थान

सूरज जब खूब तपने लगता है
धरती जब आग उगलने लगती है
सूख जाते हैं तालाब
नदियाँ बन जाती हैं क्षीण जलधाराएँ
फिर उड़ जाते हैं पक्षी
शीतल हवाओं की तलाश में
फिर उड़ते हैं पक्षी हजारों-हज़ार किलोमीटर
फिर तलाशते हैं नया स्थान
और बनाते हैं उसे अपना घर

ऋतुएं होती रहती हैं परिवर्तरित
पक्षी करते रहते हैं परिवर्तरित स्थान
पक्षियों के उड़ जाते ही
छा जाता है सन्नाटा
पंखों में नाचने वाली हवा
उदास होकर बहती है खामोशियों की गलियों में

वेदानाओं से व्यथित वृक्ष हो जाते हैं पत्थर
शापित अहल्या के समान
खिखिलाते पत्तों की हंसी को
लील जाती है काली नज़र
बन जाती है इतिहास
पक्षियों की जल-क्रीड़ाएं
उदास लहरें लेती रहती हैं
ओढ़कर निराशा की चादरें

पुनः होती है परिवर्तरित
पुनः आ जाते हैं पक्षी
हवाएँ गाने लगती हैं स्वागत गीत
चहकती हैं
अल्हड़ युवती-सी उछलती-कूदती हैं
झूमाती-झूलाती टहनी-टहनी पत्ते-पत्ते
बजने लगते हैं लहरों के घूँघरू
लौट आते हैं त्योहारों के दिन
वृक्षों, झाड़ियों नदी किनारों पर

एक तीस-सी बनी रहती है फिर भी
आशंकित रहते हैं सब
उड़ जायेंगे पुनः पक्षी एक दिन

</poem>
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