भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
अपने प्रभु से-
'दूर रखो हमें हिंसक भेड़ियों से'
हाँ, ये वे ही भेड़िए हैं
जो चबा रहे हैं इन्सानियत इन्सान की
और पहना रहे हैं पोशाकें उन्हें
सत्ता की, शैतान की, धर्म की, धर्मान्धता की
और पहनकर उन्हें मर गया आदमी
सचमुच
जीव उठी वर्दियाँ और कुर्सियाँ
जो खेलती हैं नाटक
सद्भावना का, समानता का
निकालकर रैलियाँ लाशों की,
मुबारक हो, मुबारक हो,
नई रैलियों का यह नया युग
तुमको, हमको और उन भेड़ियों को भी
सबको मुबारक हो,
धम-धमाधम, धम-धमाधम, धम-धमाधम
</poem>
Delete, Mover, Protect, Reupload, Uploader
54,410
edits