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ब्राह्मण का दुख / मुकेश मानस

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<poem>

उसे ये दुख़ है
कि मैं क्यों न बना वाल्मीकि
जिसने राम की गाथा को महागाथा बना दिया
सेवा की उसकी परित्यक्ता स्त्री की
और दीक्षा दी उसके पुत्रों को

उसे ये दुख़ है
कि मैं क्यों न बना हनुमान
जो शक्तिमान होकर भी
रहा राम का दास उम्र भर
उसके इशारों पर नाचता हुआ

उसे ये दुख़ है
कि मैं क्यों न बना बली
जिसने विशाल साम्राज्य अपना
दे दिया नैवेद्य-सा चुपचाप
वामनावतार को

उसे ये दुख है
कि मैं क्यों न बना एकलव्य
जिसने स्वज्ञ धनुर्धर होकर भी
अपना ज्ञान, अपना शौर्य
दे दिये चुपचाप गुरु दक्षिणा में

उसे ये दुख़ है
कि ज़माना बदल गया है
और इस बदले हुए ज़माने में
ये सेवा, ये दासत्व, ये नैवेद्य,
और ये गुरु दक्षिणा
माँगने पर भी नहीं मिलते
2005
<poem>
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