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मंथन/ मुकेश मानस

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ये कैसा सफ़र है
क्या मकाम है ये
कि शुरू करता हूँ जहाँ से अफ़साना
फिर वहीं लौट के आ जाता हूँ

सदियों पहले जहाँ जलाये थे जंगल
बसाये थे मैंने कितने ही घर
वहाँ उग आये हैं जंगल फिर से
नज़र आता नहीं जिनमें कोई बशर

कि निकल के आया था जिस जंगल से
फिर उसी जंगल में ख़ुद को पाता हूँ
हर तरफ़ खड़े हैं जहाँ दरख़्त ही दरख़्त
बारहा उन्हीं दरख़्तों से टकराता हूँ

हर कोई लगता है मुझे अपना रक़ीब
जो मेरे पास, मेरे साथ में है
उसके माथे पे मेरे ख़ून का टीका
लहू जिसका मेरे हाथ में है

मैंने तलाशा था जिसे सदियों में
वो ज़िन्दगी अब कहीं दिखती ही नहीं
जो मुहब्बत पे जां निसार करती थी
कुछ इस तरह खो गई जवानी वो
लाख ढूँढो अब कहीं मिलती ही नहीं

ये कैसी फ़िज़ां है, क्या समां है ये
कोई मौसम, कोई लमहा
आता नहीं रास मुझे
बारहा मुझको छला दुनिया ने
कि अब किसी भी बात पर
आता नहीं विश्वास मुझे

ये नज़र की सीमा है
या वक्त का धोख़ा
कि जो सूरज निकला था बड़ी देर के बाद
वो छुपा तो ऐसा छुपा
कि निकलता ही नहीं
हादसा कुछ ऐसा ग़ुज़रा है साथ मेरे
कि ढूँढने पर भी कोई जवाब
अब मुझे मिलता ही नहीं

हर तरफ़ अन्धेरा, हर तरफ़ सन्नाटा
किस तरफ़ घर था मेरा, कौन बतलाये
इस बयाबाँ में कोई इंसान
अब मुझे मिलता ही नहीं
2003

<poem>
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