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बाज़ार / मुकेश मानस

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एक

शून्य से नहीं उपजे हैं
टपके नहीं आकाश से
अचानक नहीं प्रगटे हैं
बाज़ार हैं मौज़ूद
सदियों से इस विश्व में


दो

आदमी की जिज्ञासाओं ने
आदमी की ज़रूरतों ने
बनाए हैं बाज़ार
बाज़ार आदमी के लिए
अपने ढंग की ज़रूरत हैं


तीन

पहाड़ों को लाँघकर
समन्दरों को फाँदकर
जंगलों को काटकर
बाज़ार आदमी के साथ
अतीत से चलकर आये हैं
और भविष्य में जायेंगे
बाज़ार चिर यात्री हैं


चार

बाज़ार समूचे विश्व के हैं
और बाज़ारों में एक समूचा विश्व है

बाज़ारों ने किया है लगातार
विश्व को छोटा
और मनुष्य को बड़ा


पाँच

बाज़ार स्त्री-पुरूष नहीं हैं
ब्राह्मण-अछूत नही हैं
हिन्दू-मुसलमान नहीं हैं
और नहीं हैं देसी-परदेसी
बाज़ार में कोई भेद नहीं चलता

बाज़ार जनतंत्र की दुनिया है
और दुनिया का जनतंत्र है बाज़ार


छ्ह:

बाज़ार में कुछ नहीं छुपता
बाज़ार एक तेज प्रकाश है
हरेक झूठ, ढोंग और आदर्श
नंगा है बाज़ार में

बाज़ार में खुलती हैं गाँठें
सुलझती हैं गुत्थियाँ
बाज़ार में सब कुछ खुला है


सात

बाज़ारों ने ज्ञान और धर्म को
कला और दर्शन को
मनुष्य और उसके श्रम को
आज़ाद किया है
बिना किसी उदघोष के

बाज़ार आधुनिक और प्रगतिशील हैं


आठ

बाज़ार अथाह सागर हैं
और विस्तीर्ण आकाश
उन्हें मापा नहीं जा सकता
मगर वे माप सकते हैं
समूची धरती, समूचा आकाश

वे फैले हुए हैं
सभ्यता के इस छोर से
उस छोर तक


नौ

लेकिन आज कल के बाज़ार का
कोई ठिकाना नहीं है
बाज़ार कुछ भी कर सकता है

आजकल बाज़ार पर
एक भयानक जादुई साया है
जिस इंसान के साथ-साथ
बाज़ार यहाँ तक आया है
आज बाज़ार उसी का
खून पीने पे उतर आया है

2002, डाँ0 कर्ण सिंह चौहान के भाषण से प्रभावित होकर





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