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घर के बाहर घर / मुकेश मानस

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कभी कभी ऐसा होता है
कि घर से बाहर निकलना
नहीं होता घर से बाहर निकलना

घर से बाहर निकलते ही आकार लेने लगता है
हमारे भीतर एक और घर
हम पाते हैं ख़ुद को उसके भीतर
उससे बाहर आकर भी

बाहर खड़े होकर हम देखते हैं
खुद को टहलते हुए घर के भीतर
सुबह की चाय की चुस्कियां लेते हुए
बच्चों और पत्नी से गप-शप करते

हम देखते हैं ख़ुद को
बच्चों के संग खेलते हुए
ये भूलकर कि हम व्यस्क हैं
और अनन्त परेशानियों में मुब्तिला हैं

हम पत्नी के चेहरे की आवाज़ सुनते हैं
और इस बात का अहसास करते हैं
कि हम दरअस्ल प्यार से लबरेज़ हैं
इस घर में नहीं आता अख़बार
बलात्कार, लूट और भ्रष्टाचार की ख़बरें लिए
और ना होता है टेलीविज़न
जिस पर हँसता रहता है हत्यारा
लगातार अपनी ख़ूंखार हँसी में
इस घर में हत्यारे की कोई जगह नहीं

यहाँ बस होते हैं हम
और हमारी चाहतें
प्यार के लमहों से भरी
एक अलग दुनिया होती है
हमारे इस घर के भीतर

घर के बाहर निकलकर भी हम
घर के भीतर बने रहने का सपना देखते हैं
और सपने में भी निकल नहीं पाते
सपने के इस घर से बाहर
2002

<POEM>
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