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पंडिज्जी / मुकेश मानस

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चाय की मशीन में खौल चुका है पानी
दूध भी हो गया है गरम
और रख दिये गये हैं सारे कप धो-पौंछ्कर

अध्यापक कक्ष की सभी कुर्सियॉ
कर दी गई हैं एकदम साफ़
झाड़ दिये गये हैं सोफ़े
रख दी गई हैं चिट्ठियाँ मेज पर
और क़रीने से अख़बार सारे
बिजली की किफ़ायत के लिहाज से
चलाये नहीं गये हैं एयरकंडीशनर
इन्हें चला देने पर
बन जायेगा माहौल एकदम बढ़िया

अब इस बढ़िया माहौल में बैठकर
आराम से पी जा सकती है चाय
पलटे जा सकते हैं अख़वार के पन्ने
छाँटी जा सकती हैं अपनी चिट्ठियाँ
या की जा सकती है अगले व्याख्यान की तैयारी
आपकी सुविधा का पूरा इंतजाम कर दिया गया है

और इन सब कामों के लिये
आप कर सकते हैं पंडिज्जी की सराहना
मगर उनके लिये यह रोज़ का काम है

आप जानते ही होंगे
कि पंडिज्जी इस शख्स का असली नाम नहीं है
यह नाम पहाड़ से उसके साथ नहीं आया
यह नाम किसी ने दिया था उसे प्यार से
प्यार और सम्मान से भरा यह नाम
अब इस शख्स की पहचान है

बस पुकार भर लीजिए यह नाम
मैदानी हरियाली की तरह लहराता
सीढ़ीदार खेतों की किनारियों जैसी झुर्रियाँ
और पहाड़ी फूलों सी मुस्कुराहट लिए
एक आदमी आपके पास आ खड़ा होगा
आपकी सहायता को तत्पर

बरसों पहले पहाड़ की कठिनाईयाँ लाँघकर
शहर आये इस अदना शख़्स ने
मेहनती और पहाड़ी छवि को
कभी दाग़ नहीं लगने दिया
जीवन उसने जितना भी जीया
जी भर कर जीया

मगर आज सुबह-सुबह
सारी तैयारियाँ करके
कहाँ चले गये पंडिज्जी
बिना किसी को बताए
चुपचाप

चले गए होंगे यहीं कहीं
आ ही जाएंगे थोड़ी बहुत देर में
शायद चले गए होंगे कालेज से बाहर
चाय की पत्ती या चीनी लेने
या चाक या बीड़ी खरीदने
या अपने लिये सुबह का नाश्ता लेने
या शायद गए हों कुछ फोटोकापी करवाने
या फिर किसी और ही काम से
कुछ न कुछ करते ही रहते हैं

कभी-कभी बैठ जाते हैं
अध्यापक कक्ष के पीछे वाले लान में
किसी पेड़ की छाँव तले सुस्ताने
या फिर बीड़ी के दो चार कश मारने
दिन भर की खटराग में
फिर इतना वक़्त ही कहाँ मिलता है
कि कोई इंसान दो घड़ी आराम से बैठ सके
और मार सके बीड़ी के दो-चार कश

देर शाम तक चलती है भाग-दौड़
और इस भाग-दौड़ में
याद नहीं रहता कुछ भी

शायद इस घड़ी आराम से बैठकर
पंडिज्जी पी रहे होंगे बीड़ी
और बीड़ी के कश मारते हुए
सोच रहे होंगे जाने क्या-क्या…!!

घाटियों की गोद में बैठा
मैदानों की हरियाली निहाराता
पहाड़ लगता है जैसे कभी-कभी
एकदम शाँत, सौम्य और समाधिस्थ
ऐसे ही लगते है पंडिज्जी
किसी पेड़ की छाँव तले
कुछ सोचते और कुछ सुस्ताते हुए
समय जैसे ठहर जाता है उनके लिए

मगर पड़ ही जाता है ख़लल
और आ ही जाती है कोई आवाज़
उन्हें पुकारती, ढ़ूँढ़ती हुई

किसी का जन्मदिन, विवाह या सालगिरह हो
या किसी भी तरह की पार्टी हो
या कालेज का कोई भी कार्यक्रम
सब में देखा जाता है पंडिज्जी को
एक अच्छे मेहमाननवाज़ के रूप में
जैसे उनके किसी सगे का जन्मदिन हो
जैसे उनके किसी सगे का विवाह हो
जैसे उनके किसी सगे की सालगिरह हो
जैसे उनके किसी सगे की पार्टी हो

पूरा कालेज और कालेज के लोग
उनका परिवार ही है
हर कोई उनका अपना है
और हर किसी के वो अपने हैं

मगर आज
अभी तक नहीं लौटे हैं पडिज्जी
जाने कहाँ चले गए हैं चुपचाप
अब ख़लने लगी है सबको
उनकी ग़ैर-मौजूदगी

अध्यापक कक्ष में गूँज रही हैं
उनके नाम की आवाज़ें
हर नज़र उन्हें खोज रही है
उन्होंने पहले तो कभी ऐसा नहीं किया
उन्होंने कभी इतनी देर नहीं लगाई
वापस आने में

मगर चाय की मशीन में तो
खौल रहा है पानी
पंडिज्जी के बिना भी

2007, सत्यवती कालेज में काम करने वाले आनन्द सिंह नेगी यानी पंडिज्जी की स्मृति में




<poem>
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