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Kavita Kosh से
धुओं की बारहमासी बरसात में
अपने पारदर्शी सहोदरों के संग
नहा-ढोधो, खेल-कूद कर
इतना सयाना हुआ था
कि वह भांप सकता था
ज़हरीले कुकुरमुत्तों के जंगल से
जहां समाज-पार के
चुनिन्दा नामूनेदार नमूनेदार समाज
शौक से छल रहे होते हैं--
भूत, भविष्य और वर्तमान
और चुग रहे होते हैं
बस, यही है
गठिया के मीठे दर्द वाले जोड़ों को
और अपनी बपौती में मिली
बेशकीमती इकलौती कमीज़ और पाजामे पर,
वह बता सकता है
सैंतीस चकत्तियों से झांकते हुए सत्तासी छिद्रों को
नोच-नोच अपनी हथेली पर
क्रम से रखता है गिनते हुए
एक, दो, टींतीन , चार ....
अपनी पाठशाला उसे याद है