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|रचनाकार=रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
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बेघर सदा रहे हैं
ये घर बनानेवाले ।
तारों की छत खुली है
धरती बनी बिछौना
इस बेरहम शहर में
मस्ती में डूब सोना
अँधेरों में गा रहे
दीया जलानेवाले ।
शिखर नभ को छू रहे हैं
सुख से हैं अघाए
किसका बहा पसीना
ये कभी न जान पाए ।
लू के थपेड़े खाकर
छाँव दिलाने वाले ।
आज हैं यहाँ पर -
कल कहीं और है ठिकाना
बची है साँस जब तक
गैरों के घर बसाना ।
सोएँगे नींद गहरी
न जाग पाने वाले ।
</poem>