भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' }} {{KKCatKavita}} <poem>बेबस हर मथ…
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>बेबस हर मथुरा लगती है
पाश कंस का कसा हुआ है,
नीर सरोवर का ज़हरीला
नस-नस में अब बसा हुआ है।
कहो कन्हैया इनसे कैसे?
निपट सकोगे निपट अकेले ,
छल-बल सब कुछ साथ इन्हीं के
खेल कुटिलता के ये खेलें ।
कपटी कौरव सभी मिटाए
फिर भी कपट अभी तक जारी
आँखों पर पट्टी बाँधे है
गांधारी बनकर लाचारी ।
गली-गली में जुआ ठगी का
लाखों शकुनि लिये हैं पासे ,
रूप अलग हैं , काम वही है -
धोखा देकर सबको फाँसे ।
धृतराष्ट्र की न जकड़ छूटती
चूर-चूर कर डाली जनता ,
सिंहासन हैं बिल्कुल बहरे
नहीं किसी की कोई सुनता ।
चक्रव्यूह में घिरा अभिमन्यु
कौरव -दल से जूझ रहा है ,
खाली हाथ किधर है जाना
नहीं उसे अब सूझ रहा है ।
बाण भोथरे हुए पार्थ के
चक्र सुदर्शन लेकर आना ,
तुमको अब खुद लड़ना होगा
छोड़ सारथी का वह बाना ।
-0-
19 अगस्त ,2009
</poem>
{{KKRachna
|रचनाकार=रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>बेबस हर मथुरा लगती है
पाश कंस का कसा हुआ है,
नीर सरोवर का ज़हरीला
नस-नस में अब बसा हुआ है।
कहो कन्हैया इनसे कैसे?
निपट सकोगे निपट अकेले ,
छल-बल सब कुछ साथ इन्हीं के
खेल कुटिलता के ये खेलें ।
कपटी कौरव सभी मिटाए
फिर भी कपट अभी तक जारी
आँखों पर पट्टी बाँधे है
गांधारी बनकर लाचारी ।
गली-गली में जुआ ठगी का
लाखों शकुनि लिये हैं पासे ,
रूप अलग हैं , काम वही है -
धोखा देकर सबको फाँसे ।
धृतराष्ट्र की न जकड़ छूटती
चूर-चूर कर डाली जनता ,
सिंहासन हैं बिल्कुल बहरे
नहीं किसी की कोई सुनता ।
चक्रव्यूह में घिरा अभिमन्यु
कौरव -दल से जूझ रहा है ,
खाली हाथ किधर है जाना
नहीं उसे अब सूझ रहा है ।
बाण भोथरे हुए पार्थ के
चक्र सुदर्शन लेकर आना ,
तुमको अब खुद लड़ना होगा
छोड़ सारथी का वह बाना ।
-0-
19 अगस्त ,2009
</poem>