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हवा-पानी का पिण्ड
सोच लाइये जब सोचने लगते हैं तो सोच पड़ते सोचते हैं- तुम कौन हो? कहां कहाँ से आए हो? गर्मियों की -सी बरखा- आए और चले गए। और वैसे सोचिए तो – तुम्हारे ही दम से दुनिया है। सूर्य में प्रकाश है तुम्हारा, जुगनू में तुम्हारी रोशनी है। और वैसे औकात कहें- तो तीन में न तेरह में। दो सोरों पे चलने वाली मुरूली का यह स्वर – न बाहर में, न भीतर में। जाने कहां कहाँ टूट जाए यह ‘सोर’- हवा की ही तो जात है। दो साँसें चलते रहने तक की तो सब बात है। पर जो भी है, जितजितना भी है सब तेरी ही करामात है। वाह रे हवा-पानी के पिण्ड (मनुष्य)! तेरी क्या बात है? जब सोचने लगते हैं तो सोचते हैं।….
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