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<poem>
मैं पिछले कुछ दिनों सेमैं सुन रहा हूँ ,तुम्हेंतुम्हारी सरगोशी,तुम्हारे बारे में .
और अब
सच ये है केतुम्हें तुम ही को सोचता भी हूँ .मैं
खिंच गयी हो तुम
मन में
एक लकीर सी
कच्चे कोलतार की सड़क पे
पड़े पहिये के न मिट्ने वाले निशान के जैसी
हाँ-हाँ मुझे स्वीकार है
मैं तुमसे प्रेम करता हूँ
और मुझे ये भी स्वीकार है
के तुम्हें पाने और ना पाने के बीच
बहुत सी दूरियां हैं,और कारण हैं
मसलन ,
तुम्हें जानता भी नहीं
दो भिन्न-भिन्न बातें हैं
इस जनम में तो तुम्हें शायद पा ना सकूँ
एक और कई जनम लेने होंगे तुम्हें पाने को ...........
जनम तो शायद दुबारा हो भी जाएं
मगर प्रेम …
क्या दुबारा हो सकेगा
तो क्या ये ख्वाब ये संकल्प अधूरा ही रहेगा
जनमों जनमों तक..???
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