भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रात / मुकेश मानस

1,532 bytes added, 12:05, 7 सितम्बर 2010
नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मुकेश मानस |संग्रह=काग़ज़ एक पेड़ है / मुकेश मान…
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=मुकेश मानस
|संग्रह=काग़ज़ एक पेड़ है / मुकेश मानस
}}
{{KKCatKavita
}}
<poem>

बड़ी थकन है इस तन मन में
पलकें थक कर चूर हो चलीं
पर जाने कैसी उलझन है
जो मुझे नहीं सोने देती

अन्धकार गहराता है
बढ़ता जाता है सन्नाटा
रात है चुप, और मैं हूँ ग़ुम
बाहर भीतर तन्हाई है
जो मुझे नहीं रोने देती

मैं जैसे वीरान समंदर
कितना गुमसुम, कितना खाली
पर भीतर तूफान मचलता
लाख कोशिशें करता हूँ पर
नींद ना आती आँखों में

ना जाने क्यों हर धड़कन
चलती है थमी सी रहती है
हासिल हैं मुझको सब खुशियाँ
फिर भी एक कमी सी रहती है


क्यों ऐसा लगता है मुझको
कोई और है मुझपे छाया सा
कोई और ही जीता है मुझमें
मेरे भेस में मेरा साया सा
2005

<poem>
681
edits