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झूठ है,छल है,कपट है,जंग है,तकरार है
सोचता रहता हूँ अक्सर क्या यही संसार है

ज़हन से उलझा हुआ है मुद्दतों से इक सवाल
आदमी सामान है या आदमी बाज़ार है

आज भी उससे तअल्लुक़ है उसी सूरत,मगर
उसके मेरे बीच ख़ामोशी की इक दीवार है

इस तरक़्क़ी पर बहुत इतरा रहे हैं आज हम
जूतियाँ सर पर रखी हैं पाँव में दस्तार है

इस बग़ीचे का मैं रखवाला हूँ,मालिक तो नहीं
ये बग़ीचा फिर भी मेरे ख़ून से गुलज़ार है

बीच रस्ते से पलट जाना भी तो अच्छा नहीं
अबके हिम्मत और करले,अबके बेड़ा पार है

उस किनारे किस तरह जा पाओगे ऐ ’नाज़’ तुम
नाव में सूराख़ है और घुन लगी पतवार है