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गरमियों की शाम / बालकृष्ण राव

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आँिधयो आँधियों ही आँिधयो आँधियों मेंउड उड़ गया यह जेठ का जलता हुआ दिन,मुड मुड़ गया किस आेरओर, कब
सूरज सुबह का
गदर् गदर की दीवार के पीछे, न जाने। जाने ।
क्या पता कब दिन ढला,
कब शाम हो आयी आई
नही है अब नही है
एक भी पिछडा पिछड़ा सिपाहीआँिधयो आँधियों की फौज का बाकी
हमारे बीच
खड़कता है न हिलता है
हवा का नाम भी तो हो
हमें अब आँिधयो आँधियों के शोर के बदले मिली है हब्स की बेचैन खामेशी ख़ामोशी
न जाने क्या हुआ सहसा,
ठिठक कर,
साँस रोके रह गयी गई आँखे गडाये गडाए
गदर्
दीवार को ही देखती -सी
प्रकृति सारी
आैर और क्या देखे
दिखेगा क्या
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