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{{KKRachna
|रचनाकार=रविकांत अनमोल
|संग्रह=
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
बाग़ में कोयल बोल रही है
भेद किसी का खोल रही है
मेरे देस की मिट्टी है जो
रंग फ़ज़ा में घोल रही है
जीवन की नन्ही सी चिड़िया
उड़ने को पर तोल्र रही है
कोई मीठी बात अभी तक
कानों में रस घोल रही है
मोल नहीं कुछ उस दौलत का
जो कल तक अनमोल रही है
बाहर उसकी गूँज ज़ियादा
जिसके अंदर पोल रही है
देखें क्या होता है आगे
अब तक धरती गोल रही है
तू भी उसके पीछे हो ले
जिसकी तूती बोल रही है
</poem>
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|रचनाकार=रविकांत अनमोल
|संग्रह=
}}
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<poem>
बाग़ में कोयल बोल रही है
भेद किसी का खोल रही है
मेरे देस की मिट्टी है जो
रंग फ़ज़ा में घोल रही है
जीवन की नन्ही सी चिड़िया
उड़ने को पर तोल्र रही है
कोई मीठी बात अभी तक
कानों में रस घोल रही है
मोल नहीं कुछ उस दौलत का
जो कल तक अनमोल रही है
बाहर उसकी गूँज ज़ियादा
जिसके अंदर पोल रही है
देखें क्या होता है आगे
अब तक धरती गोल रही है
तू भी उसके पीछे हो ले
जिसकी तूती बोल रही है
</poem>