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<poem>
तला जूते का टूटा था ,ख़ुशी थी
वतन की ख़ाक कदमों में बिछी थी

नज़र हर एक की मंजिल पर लगी थी
तो सबके पाँव बेडी भी पड़ी थी

सफर आसान पहले भी नहीं था
मगर तब जिंदगी भी ज़िन्दगी थी

तकाजा था कि हम तेवर बदलते
पर उसकी आँख में थोड़ी नमी थी

विभीषण और विभीषण बस विभीषण
भरत से कब किसी की दोस्ती थी

वो पत्थर पत्थरों पे मारता है
कभी यह भूल हमसे भी हुई थी

कहा उसने कि फिर बदलेगी दुनिया
हमें यह बात क्यों सच्ची लगी थी

अगर बादल थे सूरज पर तो सर्वत
तुम्हे किस बात की शर्मिंदगी थी</poem>