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<poem>
लोग तुम्हारे वास्ते
पलकें बिछाते हैं
मुस्कुराते हैं
कभी-कभी
आकाश के तारे भी
तोड़ लाने की बात करते हैं
सिर्फ इसलिए
कि तुम खुश रहो
उन पर
अपनी पसंदीदगी की
मुहर लगा दो
और तुम
ऐसा करते भी हो.

तुम्हारा मिलने जुलने का दायरा
कुछ बढ़ता जा रहा है
लेकिन जो घट रहा है
उसकी कल्पना कभी कि है तुमने?
तुम इस पृथ्वी के
एक निरीह प्राणी थे
अब भी हो
लोग तुम्हे आकाश बना चुके हैं
और तुम
लोगों के कहने पर
अपनी पहचान
भूल गए हो.
कब तक ?

फिर कोई नवागंतुक
लोगों के वोट
अपनी तरफ करके
तुम्हे तुम्हारे सही स्थान पर
वापस पहुंचा देगा.
उस पल
तुम्हे
सहानुभूति या सांत्वना
देने वाला भी नहीं मिलेगा.

मेरी बात छोड़ो
मैं आज भी
उसी मोड़ पर
जहां तुम मुझे छोड़ कर
आकाश यात्रा पर गये थे,
जमीं पर अपने पाँव
मजबूती से टिकाये
खडा हूँ,
इस प्रतीक्षा में
कि शायद
कभी तुम नीचे आओ
तो स्वयं को
अकेला न पाओ</poem>