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बेदखल / पूनम तुषामड़

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<poem>
मां सिखाती थी अक्सर
एक ही बात
लड़कियों को
क्या करना चाहिए
और क्या नहीं

मैं जब भी हंसती
उन्मुक्त!
वे आंखें दिखाती।
मैं जब भी चाहती
खेलना पड़ौस में
वे सहम जाती
धीरे से डांट कर
मुझे अंदर ले जाती।

वे अनपढ़ थी
पर मुझे अक्सर
पढ़ने को कहती।
जब भी मैंक
हना चाहती कुछ
खुलकर
वे मुझे खामोश
कर देतीं।
जब मेरी शादी की
बात आती
मैं यकायक
पराया धन
हो जाती
भाई क्यूं नहीं है
पराया ....?
वे कहीं खो जाती
आह भरते हुए
सिर्फ इतना कहती -
वही तो है
हमारे बुढ़ापे की लाठी।
इन आंखों का तारा
उनकी बातें
मुझे अंदर तक
लील जातीं।
इस तरह मेरी मां
मेरी मां न रह कर
संस्कृति और परंपरा की
पोषक बन जाती
और मुझे मेरे सब अधिकारों से
स्वयं.... बेदखल कर जाती
</poem>