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मानी / गुलज़ार

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|रचनाकार=गुलज़ार
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}}
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चौक से चलकर,मंडी से,बाज़ार से होकर
लाल गली से गुज़री है कागज़ की कश्ती
बारिश के लावारिस पानी पर बैठी बेचारी कश्ती
शहर की आवारा गलियों से सहमी-सहमी पूछ रही हैं
हर कश्ती का साहिल होता है तो-
मेरा भी क्या साहिल होगा?

एक मासूम-से बच्चे ने
बेमानी को मानी देकर
रद्दी के कागज़ पर कैसा ज़ुल्म किया है
</poem>
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