भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
आईना देख रही थी मेरी पत्थर आँखें,
ले उडी वक़्त की आंधी जिन्हें अपने हमराह,
आज फिर ढूंढ़ रही है वाही मंज़र आँखें,
अपने हलकों से निकल आई है बाहर आँखें,
तू निगाहों की जुबां खूब समझता होगा,
तेरी जानिब तो उठा कराती हैं अक्सर आँखें,
देख लेते जो 'कमाल' उस की समंदर आँखें,