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|रचनाकार=दाग़ देहलवी
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काबे की है हवस कभी कू-ए-बुतां की है
मुझ को ख़बर नहीं मेरी मिट्टी कहाँ की है
काबे की है हवस कभी कूकुछ ताज़गी हो लज्जत-ए-बुतां की है<br>आज़ार के लिएमुझ को ख़बर नहीं मेरी मिट्टी कहाँ हर दम मुझे तलाश नए आसमां की है<br><br>
कुछ ताज़गी हो लज्जत-ए-आज़ार के लिए<br>हसरत बरस रही है मेरे मज़ार सेहर दम मुझे तलाश नए आसमां कहते है सब ये कब्र किसी नौजवां की है<br><br>
हसरत बरस रही है मेरे मज़ार क़ासिद की गुफ्तगू से<br>तस्ल्ली हो किस तरहकहते है सब ये कब्र किसी नौजवां छिपती नहीं वो जो तेरी ज़बां की है<br><br>
क़ासिद की गुफ्तगू से तस्ल्ली सुन कर मेरा फ़साना-ए-ग़म उस ने ये कहाहो किस तरह<br>छिपती नहीं वो जो तेरी ज़बां जाए झूठ सच, यही ख़ूबी बयां की है<br><br>
सुन क्यूं कर मेरा फ़साना-ए-ग़म उस ने ये कहा<br>न आए ख़ुल्द से आदम ज़मीन परहो जाए झूठ सचमौजूं वहीं वो ख़ूब है, यही ख़ूबी बयां जो शय जहाँ की है<br><br>
क्यूं कर न आए ख़ुल्द से आदम ज़मीन पर<br>मौजूं वहीं वो ख़ूब है, जो शय जहाँ की है<br><br> उर्दू है जिसका नाम हमीं जानते हैं 'दाग़'<br>हिन्दुस्तां में धूम हमारी ज़बां की है <br><br/poem>
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