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सुनता हूँ कि नहीं इनकारी है इस बात से
कोई निसबत थी कभी तुझको मेरी ज़ात से

तू मेरे हमराह था दरवाज़े तक शाम के
उसके आगे क्या हुआ पूछा जाये रात से

पिछली बारिश में मुझे ख़्वाहिश थी सैलाब की
अबके तू बतला मुझे क्या माँगूं बरसात से

काम आए जो हिज्र के हर आइन्दा मोड़ पर
ऐसा इक तोहफा मुझे दे तू अपने हाथ से

हाँ मुझको भी देखले जीने की लत पड़ गई
हाँ तूने भी कर लिया समझौता हालात से
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