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तुमने देखा नय के ऊपर अनय विराजा
दहन-दमन का बजा रहा था दुर्मद बाजा
जन-प्रतिजन आकुल रोता थादलित दीन थारूप-राग-जीवन मृणाल हो गया क्षीण थासह न सके तुम असहनीय दुख-दव का दंशनदिन प्रतिदिन का क्षण-प्रतिक्षण का कर्षण-घर्षणतभी सत्य के परम अहिंसक तुम अवतारीअसहयोग ले बढ़े, प्रवंचक सत्ता हारीशान्ति हुई संपन्न, क्रांतियाँ जहाँ न जीतींहुआ नया भिनसार-अमा की घड़ियाँ बीतींदेश हुआ इस जन्म-दिवस पर अब फिर प्रमुदितनहीं हरा सकता है कोई-हम हैं अविजित
'''रचनाकाल: २३२६-०९-१९६१'''
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