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हो गई है पीर पर्वत—सी पिघलनी चाहिएमैं अकेला ही चला था ज़ानिबे मंज़िल मगर<br>इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिएलोग मिलते गए और कारवाँ बनता गया<br><br>
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कविता कोश में [[दुष्यंत कुमारमजरूह सुल्तानपुरी]]
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