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|रचनाकार=पवन करण |संग्रह=स्त्री मेरे भीतर / पवन करण
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एक चिथड़ा तक नहीं बदन पर मेरे कपड़े का गुजरात की सड़कों पर
 
दंगाइयों से बचकर भागती एक औरत हूँ मैं
 
छीन कर गोद से मेरी मेरे बच्चे को पछीट दिया गया है सड़क पर
 
पछीट दिए जाने का मतलब समझते हैं न आप,
 
एक साथ कई हाथों से बुरी तरह स्तन मसले गए हैं मेरे
 
उस वक़्त उनसे निकलते दूध की चिपचिपाहट को भी
 
नहीं किया गया है अपनी हथेलियों पर महसूस
 
जननांग में घुसेड़ कर मेरे डंडा फहराया गया है उस पर एक ध्वज
 
भाइयों पिताओं और बुजुर्गों के सामने मुझे अपने
 
करके एकदम नंगा दौड़ाया गया है सड़कों पर
 
जिन्होंने पाल-पोसकर किया मुझे बड़ा सँजोए मुझे लेकर सपने
 
सोचती हूँ अपने सामने मुझे नंगा दौड़ते देख उन्हें कैसा लगा होगा
 
दौड़ाते समय मेरी पीठ के नीचे बुरी तरह बरसाए गए हैं डंडे
 
पुरुषों की तरह मुझसे नहीं पूछा गया मेरा नाम
 
नहीं की गई है कोशिश जानने की मेरा धर्म
 
उतरवा कर कपड़े नहीं की गई मेरी पहचान
 
पहनावे के आधार पर दूर से ही चीन्ह लिया गया है मुझे
 
लेकिन मेरे भाईयों और पिताओं की गर्दनों की तरह तलवार से
 
एक झटके में नहीं उड़ाई गई मेरी गर्दन,
 
बल्कि मेरे मौत माँगने से पहले, कुत्तों की तरह,
 
बख़्श देने के लिए जुड़े मेरे हाथों को चाटा गया
 
रौंदा गया है मेरे आँसुओं को वीर्य तले
 
दूर कहीं से चलकर आवाज़ आती है दंगा ख़त्म हो गया है
 
सच्ची नहीं लगती मुझे यह आवाज़
 
मुझे नहीं लगता दंगा ख़त्म हुआ है अभी
 
ये दंगा कभी ख़त्म होगा भी नहीं, मेरे और
 
मेरी देह के खिलाफ़ ये दंगा सदियों से जारी है
 
और जारी है इन दंगाइयों से बचकर मेरा भागना
 
जैसे मैं इन दिनों भाग रही हूँ गुजरात की सड़कों पर
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