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नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बशीर बद्र }} {{KKCatGhazal}} <poem> कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी, …
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{{KKRachna
|रचनाकार=बशीर बद्र
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी,
यूँ कोई बेवफ़ा नहीं होता।
तुम मेरी ज़िन्दगी हो, ये सच है,
ज़िन्दगी का मगर भरोसा क्या।
जी बहुत चाहता है सच बोलें,
क्या करें हौसला नहीं होता।
वो चाँदनी का बदन खुशबुओं का साया है,
बहुत अज़ीज़ हमें है मगर पराया है।
तुम अभी शहर में क्या नए आए हो,
रुक गए राह में हादसा देख कर।
वो इत्रदान सा लहज़ा मेरे बुजुर्गों का,
रची बसी हुई उर्दू ज़बान की ख़ुशबू।
</poem>
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|रचनाकार=बशीर बद्र
}}
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<poem>
कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी,
यूँ कोई बेवफ़ा नहीं होता।
तुम मेरी ज़िन्दगी हो, ये सच है,
ज़िन्दगी का मगर भरोसा क्या।
जी बहुत चाहता है सच बोलें,
क्या करें हौसला नहीं होता।
वो चाँदनी का बदन खुशबुओं का साया है,
बहुत अज़ीज़ हमें है मगर पराया है।
तुम अभी शहर में क्या नए आए हो,
रुक गए राह में हादसा देख कर।
वो इत्रदान सा लहज़ा मेरे बुजुर्गों का,
रची बसी हुई उर्दू ज़बान की ख़ुशबू।
</poem>