भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
नया पृष्ठ: बच्चे ! मेरे आसपास घूमते प्रतिध्वनियों के- रूपक/समुद्र हैं और जिन…
बच्चे ! मेरे आसपास घूमते
प्रतिध्वनियों के-
रूपक/समुद्र हैं
और जिनमें तमाम द्राीतलता, चांदनी
फेनिल प्रकाच्च बिंब
सब कुछ भरा रहता है; वह भरन
झिलमिल-झिलमिल हिलती-डुलती-
खुटुर-पुटुर करते सारे क्षितिज में
एक संगीत खड़ा कर देते है
बच्चे ! मेरे आसपास
घूमते प्रतिध्वनियों के रूपक/समुद्र हैं।
तुम्हें नहीं ज्ञात कि गन्दे कपड़ोंवाली
बिटिया बतक को पकड ते हुये कभी आर्त नहीं हुई
मेरे आँसुओं के गीले तारों को
कसा है/और उठाया है, एक-एक स्वर
जिससे पगडंडी पर सब कुछ वद्गर्ाामय हो जाता है
कनेर के पीले फूलों को एक-एक कर उठाती है-प्रतिदिन
और उन्हें गिन-गिन कर (गिनती नहीं जानती)
टोकरी में भर कर
पिघल उठती है--साफ
जल की बूंदे आच्छादित होने को एक कथा रचती है; केंचुओं द्वारा-मेघाकृति में
बूंद-बूंद निकाली मिट्टी के रूप को वह बटोर कर
खिलखिलाते हुये मुझमें प्रस्तुत करती है तो
मैं पाता हूँ कि--
बराबर एक हंसता हुआ गाँव मुझमें बसा है
गांववाली बिटिया में वद्गर्ाा से सिंची हुई
पृथ्वी की वह सोंधी गंध;
जुगनुओं की पांती की चमक
उसकी दंतुली में भरी रहती है
तुम्हें द्राायद कोफ़्त हो
उस छोटी-सी बिटिया की दृद्गिट
बिजली की चमक-सी तेज/क्रूर लपलपाती है
चलते-चलते उसके छोटे-छोटे पैरों की
लपलप
नाखूनों में उतर आता खून
बर्दाच्च्त नहीं कर पाओगे
जब मेरी आँसुओं से आँख रूंध जाती है
पानी आनंदवच्च उमड आता है
घर की टूटी दीवारों वाले आंगन के ढूहों पर
उसकी बकरी खड ी है/वहीं है
बतकों का एक बाड ा-उस बाड े में रहती
द्रवेत बतक को घुंघरू पहना दिये हैं-छोटे-छोटे
नन्हें हाथों से ताली पीट-पीट कर
बतक को हुसकाती है
बतक दौड़ती है/मधुर झनकार के स्वर से
किलकारियां भर खुद नाच उठती है
जर्जर मां का मन मोह लेती है
मां अपनी गरीबी को भूल जाती है
क्योंकि बिटिया में जययज्ञ होने लगता है
घोड े जयश्री के लिये सजने लगते हैं
झांझिया झांझड ी कंपकंपाने लगता है
और बच्चे यहीं पर प्रत्याश्रय बनते है
लौटा हुआ उजाला
जंगली वृक्षों पर छा जाता है
बच्चे ! मां के लिये वंनपांच्चुल तो होते ही है
और स्तुति प्रतिबंध के द्राब्द भी है
पराजित मेरे बौने व्यक्तित्व पर
एक द्राांति और युद्धवाला द्यूत
सुगबुगाता है/और जीवन कभी
थकता है
कभी लंका बन कर प्रताड़ित करता है
किंतु बिटिया जब-
मेरे सन्नाटे के समीप घूमती है
कनेर का फूल
केंचुए की प्रतिपादित मिट्टी
हरी घास का खोपड
बेह्या का फूल
धूल भरी हथेली
पसीना भरा चिपचिपाता हाथ
सब कुछ तो स्वर्ग बन जाता है
बिटिया अदम्य विच्च्वास है
स्वप्न भरी आंखों की वह विभव है
द्रापथ है
सुगंध है
बच्चे ! मेरे आसपास घूमते
प्रतिध्वनियों के
रूपक/समुद्र हैं।
प्रतिध्वनियों के-
रूपक/समुद्र हैं
और जिनमें तमाम द्राीतलता, चांदनी
फेनिल प्रकाच्च बिंब
सब कुछ भरा रहता है; वह भरन
झिलमिल-झिलमिल हिलती-डुलती-
खुटुर-पुटुर करते सारे क्षितिज में
एक संगीत खड़ा कर देते है
बच्चे ! मेरे आसपास
घूमते प्रतिध्वनियों के रूपक/समुद्र हैं।
तुम्हें नहीं ज्ञात कि गन्दे कपड़ोंवाली
बिटिया बतक को पकड ते हुये कभी आर्त नहीं हुई
मेरे आँसुओं के गीले तारों को
कसा है/और उठाया है, एक-एक स्वर
जिससे पगडंडी पर सब कुछ वद्गर्ाामय हो जाता है
कनेर के पीले फूलों को एक-एक कर उठाती है-प्रतिदिन
और उन्हें गिन-गिन कर (गिनती नहीं जानती)
टोकरी में भर कर
पिघल उठती है--साफ
जल की बूंदे आच्छादित होने को एक कथा रचती है; केंचुओं द्वारा-मेघाकृति में
बूंद-बूंद निकाली मिट्टी के रूप को वह बटोर कर
खिलखिलाते हुये मुझमें प्रस्तुत करती है तो
मैं पाता हूँ कि--
बराबर एक हंसता हुआ गाँव मुझमें बसा है
गांववाली बिटिया में वद्गर्ाा से सिंची हुई
पृथ्वी की वह सोंधी गंध;
जुगनुओं की पांती की चमक
उसकी दंतुली में भरी रहती है
तुम्हें द्राायद कोफ़्त हो
उस छोटी-सी बिटिया की दृद्गिट
बिजली की चमक-सी तेज/क्रूर लपलपाती है
चलते-चलते उसके छोटे-छोटे पैरों की
लपलप
नाखूनों में उतर आता खून
बर्दाच्च्त नहीं कर पाओगे
जब मेरी आँसुओं से आँख रूंध जाती है
पानी आनंदवच्च उमड आता है
घर की टूटी दीवारों वाले आंगन के ढूहों पर
उसकी बकरी खड ी है/वहीं है
बतकों का एक बाड ा-उस बाड े में रहती
द्रवेत बतक को घुंघरू पहना दिये हैं-छोटे-छोटे
नन्हें हाथों से ताली पीट-पीट कर
बतक को हुसकाती है
बतक दौड़ती है/मधुर झनकार के स्वर से
किलकारियां भर खुद नाच उठती है
जर्जर मां का मन मोह लेती है
मां अपनी गरीबी को भूल जाती है
क्योंकि बिटिया में जययज्ञ होने लगता है
घोड े जयश्री के लिये सजने लगते हैं
झांझिया झांझड ी कंपकंपाने लगता है
और बच्चे यहीं पर प्रत्याश्रय बनते है
लौटा हुआ उजाला
जंगली वृक्षों पर छा जाता है
बच्चे ! मां के लिये वंनपांच्चुल तो होते ही है
और स्तुति प्रतिबंध के द्राब्द भी है
पराजित मेरे बौने व्यक्तित्व पर
एक द्राांति और युद्धवाला द्यूत
सुगबुगाता है/और जीवन कभी
थकता है
कभी लंका बन कर प्रताड़ित करता है
किंतु बिटिया जब-
मेरे सन्नाटे के समीप घूमती है
कनेर का फूल
केंचुए की प्रतिपादित मिट्टी
हरी घास का खोपड
बेह्या का फूल
धूल भरी हथेली
पसीना भरा चिपचिपाता हाथ
सब कुछ तो स्वर्ग बन जाता है
बिटिया अदम्य विच्च्वास है
स्वप्न भरी आंखों की वह विभव है
द्रापथ है
सुगंध है
बच्चे ! मेरे आसपास घूमते
प्रतिध्वनियों के
रूपक/समुद्र हैं।