भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
|सारणी=माँ / मुनव्वर राना
}}
{{KKCatNazm}}<poem>
मोहब्बत भी अजब शय है कोई परदेस में रोये
तो फ़ौरन हाथ की इक—आध चूड़ी टूट जाती है
बड़े शहरों में रहकर भी बराबर याद करता था
मैं इक छोटे से स्टेशन का मंज़र याद करता था
किसको फ़ुर्सत उस महफ़िल में ग़म की कहानी पढ़ने की
सूनी कलाई सेख के लेकिन चूड़ी वाला टूट गया
मुझे बुलाता है मक़्तल मैं किस तरह जाऊँ
कि मेरी गोद से बच्चा नहीं उतरता है
कहीं कोई कलाई एक चूड़ी को तरसती है
कहीं कंगन के झटके से कलाई टूट जाती है
उस वक़्त भी अक्सर तुझे हम ढूँढने निकले
जिस धूप में मज़दूर भी छत पर नहीं जाते
शर्म आती है मज़दूरी बताते हुए हमको
इतने में तो बच्चों का ग़ुबारा नहीं मिलता
हमने बाज़ार में देखे हैं घरेलू चेहरे
मुफ़्लिसी तुझ से बड़े लोग भी दब जाते हैं
भटकती है हवस दिन—रात सोने की दुकानों में
ग़रीबी कान छिदवाती है तिनका डाल देती है
अमीरे—शहर का रिश्ते में कोई कुछ नहीं लगता
ग़रीबी चाँद को भी अपना मामा मान लेती है
</poem>