भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
अपार आनंद आ रहा है, डाक्टर
फ़िलहाल
दो बरस पहले शायद सर्दियों में
शहर मेँ आया था सर्कस
इस बार सीने के भीतर शुरू है सर्कस
कुचले हुए होंठों के बीच नमकीन ख़ून
जोकर! जोकर!
अपार आनंद आ रहा है, डाक्टर!
ख़ून में जैसे कहीं कोई तार टूट जाने से
दम घुटकर थम जाती है ट्राम
उसकी तीनों आँखें बुझ जाती हैं चीखती हैं
मस्तिष्क मेँ कहीँ कोई स्नायु टूटती है
बेवज़न बिजली के लठ्ठ के भीतर
टूटे फ़िलामेंट की तरह काँपती है
उड़ते हुए ट्रैपीज़ में
उसके बाद?
फ़िलहाल पूरी तरह स्वस्थ।स्वस्थ।
डॉक्टर! आपके चारों तरफ
मूक-बघिर स्कूलों जैसी निस्तब्धता में
ख़ुद का जीवित रहना ही
अब ऐसा नहीं लगेगा कभी
फ़िलहाल पूरी तरह स्वस्थ।
ख़ुद के भेजे हुए एस. ओ. एस.
आईनों के धक्के खाकर अपने ही
डॉक्टर , बेहद मज़ा है सर्दियों के सर्कस में।
</poem>