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<Poem>कोई चेहरा हुआ रोशन रौशन न उजागर आँखें,
आईना देख रही थी मेरी पत्थर आँखें,
ले उडी उड़ी वक़्त की आंधी आँधी जिन्हें अपने हमराह, आज फिर ढूंढ़ ढूँढ़ रही है वाही वही मंज़र आँखें,
फूट निकली तो कई शहर-ए-तमन्ना डूबे,
एक कतरे क़तरे को तरसती हुई बंजर आँखें,
उस को देखा है तो अब शौक़ का वो आलम है,
अपने हलकों से निकल आई है हैं बाहर आँखें,
तू निगाहों की जुबां खूब ज़बाँ ख़ूब समझता होगा, तेरी जानिब तो उठा कराती करती हैं अक्सर आँखें,
लोग मरते न दर-ओ-बाम से टकरा के कभी,
देख लेते जो 'कमाल' उस की उसकी समंदर आँखें,
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