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उदास चेहरे / संजय मिश्रा 'शौक'

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उदास चेहरों को देखता हूँ
तो दिल में उठाती है हूक मेरे
उदास चेहरों को मेरे मालिक
जो गम दिए हैं तो क्यों दिए हैं?
बनाने वाले ने सबके चेहरों को
ताजगी की चमक अता की है
पहले दिन से
दर-असल चेहरों पे जो उदासी
की खुश्क चादर पड़ी हुई है
ये सिर्फ चेहरों के मालिको की
तमाम महरूमियों का इक इश्तेहार बनकर चमक रही हैं
इसे उतारो तो फिर दमकते हुए वो सारे हसीन चेहरे
उभर के आएँगे
असल सूरत में लौटकर फिर!
खुला ये हम पर अमल से अपने
बना भी सकते हैं खुद को लेकिन
हमें हकीक़त पता तो होवे!
हमारा चेहरा तो आइना है
इस आईने में
अमल भी रद्दे-अमल भी अक्सर दिखाई देता है मुद्दतों तक
तो हमको अपने अमल से पहले
ये सोचना है, कि किसका कैसा असर पडेगा
हमें ये हक ही नहीं हम अपने
दमकते चेहरों की ताजगी को अमल से छीनें !
अगरचे हमने ये तय किया तो
उदासियों का वजूद हमको नहीं मिलेगा
हर एक चेहरा ख़ुदा की कारी गरी का ज़िंदा
गवाह होगा
कोई मुलम्मा न पर्त कोई नहीं मिलेगी
शगुफ्तगी के गुलाब महकेंगे इस जमीं पर!!!</poem>