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प्यास मे कितना खून चाहती है
इश्क़ अहले ख़िरद ख़िरद का काम नहीं
आशिक़ी तो जुनून चाहती है
ख़्वाब शायद वो बुन रही है कोई
इक सुहागन जो ऊन चाहती है
और भी कुछ फ़ुनून चहती है
छत हमारे गुमान की ’बेख़ुद’बेख़ुद’
अब यक़ीं का सुतून चाहती है</poem>