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Kavita Kosh से
मैं सामने हूँ मुझ पे किसी की नज़र नहीं
वो नापने चले हैं समन्दर की वुसअतें<ref>विस्तार</ref>
लेकिन ख़ुद अपने क़द पे किसी की नज़र नहीं
सजदे में सर को काट के ख़ुश हो गया यजीद
ये साफ़ बुझदिली बुज़दिली<ref>कायरता</ref> है तुम्हारा हुनर नहीं
हम लोग इस ज़हान में होकर हैं गुम ‘अज़ीज़’
जीते रहे हैं ऐसे के जैसे बशर <ref>इंसान</ref> नहीं
</poem>
{{KKMeaning}}