भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
नज़र में आजतक मेरी कोई तुझसा नहीं निकला
तेरे चेहरे के अंदर दूसरा चेहरा नहीं अन्दर दूसरा चेहरा नहीं निकला
ज़रा सी बात थी और कश्मकश कशमकश ऐसी कि मत पूछो भिखारी मुड़ गया और गया पर जेब से सिक्का नहीं निकला
सड़क पर चोट खाकर आदमी ही था गिरा लेकिन
गुज़रती भीड़ का उससे कोई रिश्ता नहीं निकला
जहाँ पर जिंदगी ज़िन्दगी की , यूँ कहें खैरात बंटती थी उसी मंदिर से कल देखा कोई जिंदा नहीं कोई ज़िन्दा नहीं निकला
</poem>