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13:09, 24 नवम्बर 2010
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अब नहीं है हमारे पास समयडायरी के फाड़ दिये गये पन्नों में भीशब्दों से खेलने का।साँस ले रही होती हैं अधूरी कविताएँहमें बोलने फडफ़ड़ाते हैं छोटे और सरल कई शब्दऔर उपमायें।विस्मृत नहीं हो पातीं सारी स्मृतियाँसूख नहीं पाते सारे जलाशयश4दों औरप्रेम के बावजूदतय करनी है अपनी भाषाबन नहीं पातीं सारी कविताएँ।एक हथियार की तरह।डायरी के फटे पन्नों मेंहमें संवर्धित करने प्रतीक्षा करती हैं शब्दकविताएँअपनी रोजी-रोटी संज्ञा की तरह,हमें लगातार गुजरना हैप्रतीक की,संवाद स्थापत्य या विशेषण की प्रक्रियाओं सेनहींऔर बचाना है शब्दों को खारिज होने से।दु:ख की उस जमीन कीजिस पर वो अ1सर पनपती हैं।
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