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बहन / मनीष मिश्र

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सच और सपनों के बीच फँदी
ढेर सारे शब्दों के ढेर से है ढँकी
उलीचती, बिखेरती अपनी पागल सी हँसी
अपने ही मौन से गहरी मुँदी
कैसी होगी मेरी बहन?
माँ की बीमारी में चिन्ता से घुली
पिता के विषाद से सहमी-डरी
अपने एकांत में वैसे ही हरी
कैसी होगी मेरी बहन?
अपने कपड़ों को बार-बार निरखती
अपने चेहरे को फिर-फिर परखती
कठिन समय में भी सहजता से सँवरती
जोड़ती, गाँठती, समेटती, बिखेरती
कैसी होगी मेरी बहन?
कैसी होगी मेरी बहन?
जिसके पास होगा
थिरकता सा मौन
ढेर सी प्रतीक्षाएँ
अपूजित देवता का विश्वास
सहेज कर रखे संस्कार
उधेड़े बुने रिश्तों की पोथी
और कभी न खत्म होने वाले
शब्दों का अटाला
कैसी होगी मेरी बहन।
</poem>