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04:54, 27 नवम्बर 2010 यह महानगर की
एक पतली गली,
गली में इमारतें
ऊँची-नीची
बहुमंजिली।
इन्हीं के बीच
लेव लटकती
भींतों वाला
एक पुराना घर,
गारे-माटी से निर्मित।
जमाने पुराने
किंवाड़ काठ के
बड़े-बड़े पल्लों वाले,
खुले हुए हैं
और दरवाजे पर
एक बुढिय़ा
घाघरा-कुरती पहने,
तिस पर औढऩा बोदा-सा,
आँखों पर चश्मा
टूटी डंडी वाला
जिसकी कमी पूरी करता
एक काला डोरा,
लाठी के ठेगे खड़ी
निहार रही है
गली टिपतों को,
आँखों पर अपने
दांए हाथ से छतर बनाए।
वह देखो,
बाखळ में
मैं-मैं करती बकरियां
और आँगन में पळींडा भी।
अहा,
देखो,
इस महानगर में
किस तरह
मुस्करा रहा है
एक टुकड़ा गाँव।