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05:06, 8 दिसम्बर 2010 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन
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आज चंचला की बाहों में उलझा दी हैं बाहें मैंने।
डाल प्रलोभन में अपना मन
सहल फिसल नीचे को जाना,
कुछ हिम्मत का काम समझते
पाँव पतन की ओर बढ़ाना;
::::झुके वहीं जिस थल झुकने में
::::ऊपर को उठना पड़ता है;
आज चंचला की बाहों में उलझा दी हैं बाहें मैंने।
काँटों से जो डरने वाले
मत कलियों से जो नेह लगाएँ,
घाव नहीं है जिन हाथों में,
उनमें किस दिन फूल सुहाए,
::::नंगी तलवारों की छाया
::::में सुंदरता विहरण करती,
और किसी ने पाई हो पर कभी पाई नहीं है भय ने।
आज चंचला की बाहों में उलझा दी हैं बाहें मैंने।
बिजली से अनुराग जिसे हो
उठकर आसमान को नापे,
आग चले आलिंगन करने,
तब क्या भाप-धुएँ से काँपे,
::::साफ़, उजाले वाले, रक्षित
::::पंथ मरों के कंदर के हैं;
जिन पर ख़तरे-जान नहीं था, छोड़ कभी दीं राहें मैंने।
आज चंचला की बाहों में उलझा दी हैं बाहें मैंने।
बूँद पड़ी वर्षा की चूहे
और छछूँदर बिल में भागे,
देख नहीं पाते वे कुछ भी
जड़-पामर प्राणों के आगे;
::::घन से होर लगाने को तन-
::::मोह छोड़ निर्मम अंबर में
वज्र-प्रहार सहन करते हैं वैनतेय के पैने डैने।
आज चंचला की बाहों में उलझा दी हैं बाहें मैंने।