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|रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन
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साथ भी रखता तुम्‍हें तो, राजहंसिनि,

क्‍या हमारे प्‍यार का परिणाम होता!


जब कहा है कि मैंने यह शुक्र जो

वेला विदा की पास आई,

कुछ तअज्‍जुब, कुछ उदासी, कुछ शरारत

से भरी तुम मुसकराई,

::वक्‍त के डैने चले, तुम हो वहाँ, मैं

::हूँ यहाँ, पर देखता हूँ,

:::साथ भी रखता तुम्‍हें तो, राजहंसिनि,

:::क्‍या हमारे प्‍यार का निर्माण होता!


स्‍वप्‍न का वातावरण हर चीज़ के

चारों तरु़ मानव बनाता,

लाख कविता से, कला से पुष्‍ट करता,

अंत में वह टूट जाता,

::सत्‍य की हर शक्‍ल खुलकर आँख के

::अंदर निराशा झोंकती है,

:::और वह धुलती नहीं है ज्ञान-जल से,

:::दर्शनों से, मरमिटे इंसान धोता।

:::साथ भी रखता तुम्‍हें तो, राजहंसिनि,

:::क्‍या हमारे प्‍यार का परिणाम होता!

शीर्ष आसान से रुधीर की चाल रोकी,

पर समय की गति न थमती।

औ' ख़‍िज़ाबोरंग-रोग़न पर जवानी

है न ज्‍यादा दिन बिलमती,

::सिद्ध यह करते हुए हुए अगिनती

::द्वार खोलो और देखो,

:::और इस दयनीय-मुख के काफ़ले में

:::जो न होता सुबह को, वह शाम होता।

:::साथ भी रखता तुम्‍हें तो, राजहंसिनि,

:::क्‍या हमारे प्‍यार का परिणाम होता!

एक दिन है, जब तुम्‍हारे कुंतलों से

नागिनें लहरा रही हैं,

और मेरे तनतनाई बीन से ध्‍वनि-

राग की धारा बही है,

::और तुम जो बोलती हो, बोलता मैं,

::गीत उसपर शीश धुनता,

:::और इस संगीत-प्रीति समुद्र-जल में

:::काल जैसा छिप गया है मार गोता।

:::साथ भी रखता तुम्‍हें तो, राजहंसिनि,

:::क्‍या हमारे प्‍यार का परिणाम होता!

और यह तस्‍वीर कैसी,नागिने सब

केंचुलें का रूप धरतीं,

औ' हमें जब घेरता है मौन उसको

सिर्फ खाँसी भंग करती,

::औ' घरेलू कर्ण-कटु झगड़े-बखेड़ों

::को पड़ोसी सुन रहे हैं,

:::और बेटों ने नहीं है खर्च भेजा,

:::और हमको मुँह चिढ़ाता ढभ्‍ठ पोता।

:::साथ भी रखता तुम्‍हें तो, राजहंसिनि,

:::क्‍या हमारे प्‍यार का परिणाम होता!
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