Last modified on 19 नवम्बर 2014, at 22:32

विश्व धरणी के इस विशाल नीड़ में / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

विश्व धरणी के इस विशाल नीड़ में
सन्ध्या है विराजमान,
उसी के नीरव निर्देश उसी की ओर
निखिल गति का वेग हो रहा है धावमान।
चारों ओर धूसरवर्ण आवरण उतरा आता है।
मन कहता है, जाऊंगा अपने घर
कहाँ घर है, नहीं जानता।
द्वार खोलती है सन्ध्या निःसंगिनी,
सामने है नीरन्ध्र अन्धकार।
समस्त आलोक के अन्तराल में
विस्मृति की दूती
उतार लेती है इस मर्त्य की उधार ली हुई साज सज्जा सब

प्रक्षिप्त जो कुछ भी है उसकी नित्यता में
छिन्न जीर्ण मलिन अभ्यास को दूर फेंक देती है।
अन्धकार का अवगाहन स्नान
निर्मल कर देता है नवजन्म की नग्न ‘भूमिका’।
जीवन के प्रान्त भाग में
अन्तिम रहस्य पथ पुक्त कर देता है
सृष्टि के नूतन रहस्य को।
नव जन्मदिन वही है
अँधेरे में मन्त्र पढ़ सन्ध्या जिसे जगाती है आत्म आलोक में।