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विश्व प्रकाशित हो जाता / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
Kavita Kosh से
अंधकार भारी पड़ता
जब दीप अकेला चलता है
विश्व प्रकाशित हो जाता
जब लाखों के सँग जलता है
हैं प्रकाश कण छुपे हुए
हर मानव मन के ईंधन में
चिंगारी मिल जाये तो
भर दें उजियारा जीवन में
इसीलिए तो ज्योति-पर्व से
हर अँधियारा जलता है
ज्योति बुझाने की कोशिश
जब कीट पतंगे करते हैं
जितना जोर लगाते
उतनी तेज़ी से जल मरते हैं
अंधकार के प्रेमी को
मिलती केवल असफलता है
मन का ज्योति-पर्व मिलकर जब
हम निशि-दिवस मनायेंगे
कई प्रकाशवर्ष तक जग से
तम को दूर भगायेंगे
सब देखेंगे
दूर खड़ा हो
हाथ अँधेरा मलता है